ज्ञानेश्वरी अध्याय८

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:49:01
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ८ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय आठवा | अक्षरब्रह्मयोगः | अर्जुन उवाच | किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम | अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ||१|| मग अर्जुनें म्हणितलें| हां हो जी अवधारिलें| जें म्यां पुसिलें| तें निरूपिजो ||१|| सांगा कवण तें ब्रह्म| कायसया नाम कर्म| अथवा अध्यात्म| काय म्हणिपे ||२|| अधिभूत तें कैसें| एथ अधिदैव तें कवण असे| हें उघड मी परियेसें| ऐसें बोला ||३|| अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन | प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ||२|| देवा अधियज्ञ तो काई| कवण पां इये देहीं| हें अनुमानासि कांहीं| दिठी न भरे ||४|| आणि नियता अंतःकरणीं| तूं जाणिजसी देहप्रयाणीं| तें कैसेनि हे शारङ्गपाणी| परिसवा मातें ||५|| देखा धवळारीं चिंतामणीचा| जरी पहुडला होय दैवाचा| तरी वोसणतांही बोलु तयाचा| सोपु न वचे ||६|| तैसें अर्जुनाचिया बोलासवें| आलें तेंचि म्हणितलें देवें| तें परियेसें गा बरवें| जे पुसिलें तुवां ||७|| किरीटी कामधेनूचा पाडा| वरी कल्पतरूचा आहे मांदोडा| म्हणौनि मनोरथसिद्धीचिया चाडा| तो नवल नोहे ||८|| श्रीकृष्ण कोपोनि ज्यासी मारी| तो पावे परब्रह्मसाक्षात्कारीं| मा कृपेनें उपदेशु करी| तो कैशापरी न पवेल ||९|| जैं कृष्णचि होइजे आपण| तैं कृष्ण होय आपुलें अंतःकरण| मग संकल्पाचें आंगण| वोळगती सिद्धी ||१०|| परि ऐसें जें प्रेम| तें अर्जुनींचि आथि निस्सीम| म्हणौनि तयाचें काम| सदां सफळ ||११|| या कारणें श्रीअनंतें| तें मनोगत तयाचें पुसतें| होईल जाणोनि आइतें| वोगरूनि ठेविलें ||१२|| जें अपत्य थानीहूनि निगे| तयाची भूक ते मायेसीचि लागे| एऱ्हवीं तें शब्दें काय सांगें| मग स्तन्य दे येरी ? ||१३|| म्हणौनि कृपाळुवा गुरूचिया ठायीं| हें नवल नोहे कांहीं| परि तें असो आइका काई| जें देव बोलते जाहले ||१४|| श्रीभगवानुवाच | अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते | भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ||३|| मग म्हणितलें सर्वेश्वरें| जें आकारीं इयें खोंकरें| कोंदलें असत न खिरे| कवणे काळीं ||१५|| एऱ्हवीं सपूरपण तयाचें पहावें| तरी शून्यचि नव्हे स्वभावें| वरी गगनाचेनि पालवें| गाळूनि घेतलें ||१६|| जें ऐसेंही परि विरुळें| इये विज्ञानाचिये खोळे| हालवलेंहि न गळे| तें परब्रह्म ||१७|| आणि आकाराचेनि जालेपणें| जन्मधर्मातें नेणें| आकारलोपीं निमणें| नाहीं कहीं ||१८|| ऐशिया आपुलियाची सहजस्थिती| जया ब्रह्माची नित्यता असती| तया नाम सुभद्रापती| अध्यात्म गा ||१९|| मग गगनीं जेविं निर्मळें| नेणों कैचीं एके वेळे| उठती घनपटळें| नानावर्णें ||२०|| तैसें अमूर्तीं तिये विशुद्धें| महदादि भूतभेदें| ब्रह्मांडाचे बांधे| होंचि लागती ||२१|| पैं निर्विकल्पाचिये बरडीं| फुटे आदिसंकल्पाची विरूढी| आणि तें सवेंचि मोडोनि ये ढोंढी| ब्रह्मगोळकांच्या ||२२|| तया एकैकाचे भीतरीं पाहिजे| तंव बीजाचाचि भरिला देखिजे| माजीं होतिया जातिया नेणिजे| लेख जीवा ||२३|| मग तया ब्रह्मगोळकांचें अंशांश| प्रसवती आदिसंकल्प असमसहास| हें असो ऐसी बहुवस| सृष्टी वाढे ||२४|| परि दुजेनविण एकला| परब्रह्मींचि संचला| अनेकत्वाचा आला| पूर जैसा ||२५|| तैसें समविषमत्व नेणों कैचें| वायांचि चराचर रचे| पाहतां प्रसवतिया योनीचे| लक्ष दिसती ||२६|| येरी जीवभावाचिये पालविये| कांहीं मर्यादा करूं नये| पाहिजे कवण हें आघवें विये| तंव मूळ तें शून्य ||२७|| म्हणौनि कर्ता मुदल न दिसे| आणि सेखीं कारणहीं कांहीं नसे| माजीं कार्यचि आपैसें| वाढों लागे ||२८|| ऐसा करितेनवीण गोचरु| अव्यक्तीं हा आकारु| निपजे जो व्यापारु| तया नाम कर्म ||२९|| अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् | अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ||४|| आतां अधिभूत जें म्हणिपे| तेंहि सांगों संक्षेपें| तरी होय आणि हारपे| अभ्र जैसें ||३०|| तैसें असतेपण आहाच| नाहीं होईजे हें साच| जयातें रूपा आणिती पांचपांच| मिळोनियां ||३१|| भूतांतें अधिकरूनि असे| आणि भूतसंयोगें तरी दिसे| जें वियोगवेळे भ्रंशें| नामरूपादिक ||३२|| तयातें अधिभूत म्हणिजे| मग अधिदैव पुरुष जाणिजे| जेणें प्रकृतीचें भोगिजे| उपार्जिलें ||३३|| जो चेतनेचा चक्षु| जो इंद्रियदेशींचा अध्यक्षु| जो देहास्तमानीं वृक्षु| संकल्प विहंगमाचा ||३४|| जो परमात्माचि परी दुसरा| जो अहंकारनिद्रा निदसुरा| म्हणौनि स्वप्नीचिया वोरबारा| संतोषें शिणे ||३५|| जीव येणें नांवें| जयातें आळविजे स्वभावें| तें अधिदैवत जाणावें| पंचायतनींचें ||३६|| आतां इयेचि शरीरग्रामीं| जो शरीरभावातें उपशमी| तो अधियज्ञु एथ गा मी| पंडुकुमरा ||३७|| येर अधिदैवाधिभूत| तेहि मीचि कीर समस्त| परि पंधरें किडाळा मिळत| तें काय सांके नोहे ? ||३८|| तरि तें पंधरेपण न मैळे| आणि किडाळाचियाही अंशा न मिळे| परि जंव असे तयाचेनि मेळें| तंव सांकेंचि म्हणिजे ||३९|| तैसें अधिभूतादि आघवें| हें अविद्येचेनि पालवें| झांकलें तंव मानावें| वेगळें ऐसें ||४०|| तेचि अविद्येची जवनिका फिटे| आणि भेदभावाची अवधी तुटे| मग म्हणों एक होऊनि जरी आटे| तरी काय दोनी होती ? ||४१|| पैं केशांचा गुंडाळा| वरि ठेविली स्फटिकशिळा| ते वरि पाहिजे डोळां| तंव भेदली गमती ||४२|| पाठीं केश परौते नेले| आणि भेदलेपण काय नेणों जाहालें| तरी डांक देऊनि सांदिलें| शिळेतें काई ? ||४३|| ना ते अखंडचि आयती| परि संगें भिन्न गमली होती| ते सारिलिया मागौती| जैसी कां तैसी ||४४|| तेवींचि अहंभावो जाये| तरी ऐक्य तें आधींचि आहे| हेंचि साचें जेथ होये| तो अधुयज्ञु मी ||४५|| पैं गा आम्हीं तुज| सकळ यज्ञ कर्मज| सांगितलें कां जें काज| मनीं धरूनि ||४६|| तो हा सकळ जीवांचा विसांवा| नैष्कर्म्य सुखाचा ठेवा| परि उघड करूनि पांडवा| दाविजत असे ||४७|| पहिलिया वैराग्यइंधन परिपूर्तीं| इंद्रियानळीं प्रदीप्तीं| विषयद्रव्याचिया आहुती| देऊनियां ||४८|| मग वज्रासन तेचि उर्वी| शोधूनि आधारमुद्रा बरवी| वेदिका रचे मांडवीं| शरीराच्या ||४९|| तेथ संयमाग्नीचीं कुंडें| इंद्रियद्रव्याचेनि पवाडें| यजिजती उदंडें| युक्तिघोषें ||५०|| मग मनप्राणसंयमु| हाचि हवनसंपदेचा संभ्रमु| येणें संतोषविजे निर्धूमु| ज्ञानानळु ||५१|| ऐसेनि हें सकळ ज्ञानीं समर्पें| मग ज्ञान तें ज्ञेयीं हारपे| पाठी ज्ञेयचि स्वरूपें| निखिल उरे ||५२|| तया नांव गा अधियज्ञु| ऐसें बोलिला जंव सर्वज्ञु| तंव अर्जुन अतिप्राज्ञु| तया पातलें तें ||५३|| हें जाणोनि म्हणितलें देवें| पार्था परिसतु आहासि बरवें| या कृष्णाचिया बोलासवें| येरु सुखाचा जाहला ||५४|| देखा बालकाचिया धणि धाइजे| कां शिष्याचेनि जाहलेपणें होइजे| हें सद्गुरूचि एकलेनि जाणिजे| कां प्रसवतिया ||५५|| म्हणौनि सात्त्विक भावांची मांदी| कृष्णाआंगीं अर्जुनाआधीं| न समातसे परी बुद्धी| सांवरूनि देवें ||५६|| मग पिकलिया सुखाचा परिमळु| कीं निवालिया अमृताचा कल्लोळु| तैसा कोंवळा आणि सरळु| बोलु बोलिला ||५७|| म्हणे परिसणेयांचिया राया| आइकें बापा धनंजया| ऐसी जळों सरलिया माया| तेथ जाळितें तेंही जळे ||५८|| अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् | यः प्रयाति स मद्भवं याति नास्त्यत्र संशयः ||५|| जें आतांचि सांगितलें होतें| अगा अधियज्ञ म्हणितला जयातें| जे आदींचि तया मातें| जाणोनि अंतीं ||५९|| ते देह झोल ऐसें मानुनी| ठेले आपणपें आपण होउनी| जैसा मठ गगना भरुनी| गगनींचि असे ||६०|| ये प्रतीतीचिया माजघरीं| तया निश्चयाची वोवरी| आली म्हणौनि बाहेरी| नव्हेचि से ||६१|| ऐसें सबाह्य ऐक्य संचलें| मीचि होऊनि असतां रचिलें| बाहेरि भूतांचीं पांचही खवलें| नेणतांचि पडिलीं ||६२|| आतां उभेयां उभेपण नाहीं जयाचें| मा पडिलिया गहन कवण तयाचें| म्हणौनि प्रतीतीचिये पोटींचें| पाणी न हाले ||६३|| ते ऐक्याची आहे वोतिली| कीं नित्यतेचिया हृदयीं घातली| जैसी समरससमुद्रीं धुतली| रुळेचिना ||६४|| पैं अथावीं घट बुडाला| तो आंतबाहेरी उदकें भरला| पाठीं दैवगत्या जरी फुटला| तरी उदक काय फुटे ? ||६५|| नातरी सर्पें कवच सांडिलें| कां उबारेनें वस्त्र फेडिलें| तरी सांग पां काय मोडलें| अवेवामाजीं ? ||६६|| तैसा आकारु हा आहाच भ्रंशे| वांचूनी वस्तु ते सांचलीचि असे| तेचि बुद्धि जालिया विसकुसे| कैसेनि आतां ||६७|| म्हणौनि यापरी मातें| अंतकाळीं जाणतसाते| जे मोकलिती देहातें| ते मीचि होती ||६८|| एऱ्हवीं तरी साधारण| उरीं आदळलिया मरण| जो आठवु धरी अंतःकरण| तेंचि होईजे ||६९|| जैसा कवणु एकु काकुळती| पळतां पवनगती| दुपाउलीं अवचितीं| कुहामाजीं पडियेला ||७०|| आतां तया पडणयाआरौतें| पडण चुकवावया परौतें| नाहीं म्हणौनि तेथें| पडावेंचि पडे ||७१|| तेविं मृत्यूचेनि अवसरें एकें| जें येऊनि जीवासमोर ठाके| तें होणें मग न चुके| भलतयापरी ||७२|| आणि जागता जंव असिजे| तंव जेणें ध्यानें भावना भाविजे| डोळां लागतखेंवो देखिजे| तेंचि स्वप्नीं ||७३|| यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् | तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||६|| तेविं जितेनि अवसरें| जें आवडोनि जीवीं उरे| तेंचि मरणाचिये मेरे| फार हों लागे ||७४|| आणि मरणीं जया जें आठवे| तो तेचि गतीतें पावे| म्हणौनि सदा स्मरावें| मातेंचि तुवां ||७५|| तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च | मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||७|| डोळां जें देखावें| कां कानीं हन ऐकावें| मनीं जें भावावें| बोलावें वाचें ||७६|| तें आंत बाहेरी आघवें| मीचि करूनि घालावें| मग सर्वीं काळीं स्वभावें| मीचि आहें ||७७|| अर्जुना ऐसें जाहालिया| मग न मरिजे देह गेलिया| मा संग्रामु केलिया| भय काय तुज ? ||७८|| तूं मन बुद्धि सांचेंसीं| जरी माझिया स्वरूपीं अर्पिसी| तरी मातेंचि गा पावसी| हे माझी भाक ||७९|| हेंच कायिसया वरी होये| ऐसा जरी संदेहो वर्ततु आहे| तरी अभ्यासूनि आदीं पाहें| मग नव्हे तरी कोपें ||८०|| अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ||८|| येणेंचि अभ्यासेंसी योगु| चित्तासि करी पां चांगु| अगा उपायबळें पंगु| पहाड ठाकी ||८१|| तेविं सदभ्यासें निरंतर| चित्तासि परमपुरुषाची मोहर| लावीं मग शरीर| राहो अथवा जावो ||८२|| जें नानागतीतें पाववितें| तें चित्त वरील आत्मयातें| मग कवण आठवी देहातें| गेलें कीं आहे ? ||८३|| पैं सरितेचेनि ओघें| सिंधुजळा मीनलें घोघें| तें काय वर्तत आहे मागें| म्हणौनि पाहों येती ? ||८४|| ना तें समुद्रचि होऊन ठेलें| तेविं चित्ताचें चैतन्य जाहालें| जेथ यातायात निमालें| घनानंद जें ||८५|| कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः | सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ||९|| जयाचें आकारावीण असणें| जया जन्म ना निमणें| जें आघवेंचि आघवेंपणें| देखत असे ||८६|| जें गगनाहूनि जुनें| जें परमाणुहूनि सानें| जयाचेनि सन्निधानें| विश्व चळे ||८७|| जें सर्वांते यया विये| विश्व सर्व जेणें जिये| हेतु जया बिहे| अचिंत्य जें ||८८|| देखे वोळंबा इंगळु न चरे| तेजीं तिमिर न शिरे| जे दिहाचे अंधारें| चर्मचक्षूसीं ||८९|| सुसडा सूर्यकणांच्या राशी| जो नित्य उदो ज्ञानियांसी| अस्तमानाचे जयासी| आडनांव नाहीं ||९०|| प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव | भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||१०|| तया अव्यंगवाणेया ब्रह्मातें| प्रयाणकाले प्राप्ते| जो स्थिरावलेनि चित्तें| जाणोनि स्मरे ||९१|| बाहेरी पद्मासन रचुनी| उत्तराभिमुख बैसोनि| जीवीं सुख सूनि| क्रमयोगाचे ||९२|| आंतु मीनलेनि मनोधर्में| स्वरूपप्राप्तीचेनि प्रेमें| आपेआप संभ्रमें| मिळावया ||९३|| आकळलेनि योगें| मध्यमा मध्य मार्गें| अग्निस्थानौनि निगे| ब्रह्मरंध्रा ||९४|| तेथ अचेत चित्ताचा सांगातु| आहाचवाणा दिसे मांडतु| जेथ प्राणु गगनाआंतु| संचरे कां ||९५|| परी मनाचेनि स्थैर्यें धरिला| भक्तीचिया भावना भरला| योगबळें आवरला| सज्ज होऊनि ||९६|| तो जडाजडातें विरवितु| भ्रूलतामाजीं संचरतु| जैसा घंटानाद लयस्तु| घंटेसीच होय ||९७|| कां झांकलिया घटींचा दिवा| नेणिजे काय जाहला केव्हां| या रीतीं जो पांडवा| देह ठेवी ||९८|| तो केवळ परब्रह्म| जया परमपुरुष ऐसें नाम| तें माझें निजधाम| होऊनि ठाके ||९९|| यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः | यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ||११|| सकळां जाणणेयां जे लाणी| तिये जाणिवेची जे खाणी| तयां ज्ञानियांचिये आयणी| जयातें अक्षरु म्हणिपे ||१००|| चंडवातेंही न मोडे| तें गगनचि की फुडें| वांचूनि जरी होईल मेहुडें| तरी उरेल कैंचें ? ||१०१|| तेविं जाणणेया जें आकळिलें| तें जाणिवलेपणेंचि उमाणलें| मग नेणवेचि तया म्हणितलें| अक्षर सहजें ||१०२|| म्हणौनि वेदविद नर| म्हणती जयातें अक्षर| जें प्रकृतीसी पर| परमात्मरूप ||१०३|| आणि विषयांचे विष उलंडूनि| जे सर्वेंद्रियां प्रायश्चित्त देऊनि| आहाति देहाचिया बैसोनि| झाडातळीं ||१०४|| ते यापरी विरक्त| जयाची निरंतर वाट पाहात| निष्कामासि अभिप्रेत| सर्वदा जें ||१०५|| जयाचिया आवडी| न गणिती ब्रह्मचर्याचीं सांकडीं| निष्ठुर होऊनि बापुडीं| इंद्रियें करिती ||१०६|| ऐसें जें पद| दुर्लभ आणि अगाध| जयाचिये थडिये वेद| चुबुकळिले ठेले ||१०७|| तें ते पुरुष होती| जे यापरी लया जाती| तरी पार्था हेचि स्थिती| एकवेळ सांगों ||१०८|| तेथ अर्जुनें म्हणितलें स्वामी| हेंचि म्हणावया होतों पां मी| तंव सहजें कृपा केली तुम्हीं| तरी बोलिजो कां ||१०९|| परि बोलावें तें अति सोहोपें| तेथें म्हणितलें त्रिभुवनदीपें| तुज काय नेणों संक्षेपें| सांगेन ऐक ||११०|| तरी मना या बाहेरिलीकडे| यावयाची साविया सवे मोडे| हें हृदयाचिया डोहीं बुडे| तैसें कीजे ||१११|| सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||१२|| परी हे तरीच घडे| जरी संयमाचीं अखंडें| सर्वद्वारीं कवाडें| कळासती ||११२|| तरी सहजें मन कोंडलें| हृदयींचि असेल उगलें| जैसें करचरणीं मोडलें| परिवरु न संडीं ||११३|| तैसें चित्त राहिलिया पांडवा| प्राणांचा प्रणवुचि करावा| मग अनुवृत्तिपंथें आणावा| मूर्ध्निवरी ||११४|| तेथ आकाशीं मिळे न मिळे| तैसा धरावा धारणाबळें| जंव मात्रात्रय मावळे| अर्धबिंबीं ||११५|| तंववरी तो समीरु| निराळीं कीजे स्थिरु| मग लग्नीं जेविं ॐकारु| बिंबींच विलसे ||११६|| ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||१३|| तैसें ॐ हें स्मरों सरे| आणि तेथेंचि प्राणु पुरे| मग प्रणवांतीं उरे| पूर्णघन जें ||११७|| म्हणौनि प्रणवैकनाम| हें एकाक्षर ब्रह्म| जो माझें स्वरूप परम| स्मरतसांता ||११८|| यापरी त्यजी देहातें| तो त्रिशुद्धी पावे मातें| जया पावणया परौतें| आणिक पावणें नाहीं ||११९|| तेथ अर्जुना जरी विपायें| तुझ्या जीवीं हन ऐसें जाये| ना हें स्मरण मग होये| कायसयावरी अंतीं ||१२०|| इंद्रियां अनुघडु पडलिया| जीविताचें सुख बुडालिया| आंतुबाहेरी उघडलिया| मृत्युचिन्हें ||१२१|| ते वेळीं बैसावेंचि कवणें| मग कवण निरोधी करणें| तेथ काह्याचेनि अंतःकरणें| प्रणव स्मरावा ||१२२|| तरि गा ऐशिया हो ध्वनी| झणें थारा देशी हो मनीं| पैं नित्य सेविला मी निदानीं| सेवकु होय ||१२३|| अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः | तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||१४|| मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् | नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः ||१५|| जे विषयांसि तिळांजळी देउनी| प्रवृत्तीवरी निगड वाऊनि| मातें हृदयीं सूनि| भोगिताती ||१२४|| परि भोगितया आराणुका| भेटणें नाहीं क्षुधादिकां| तेथ चक्षुरादि रंकां| कवण पाडु ||१२५|| ऐसें निरंतर एकवटले| जे अंतःकरणीं मजशीं लिगटले| मीचि होऊनि आटले| उपासिती ||१२६|| तयां देहावसान जैं पावे| तैं तिहीं मातें स्मरावें| मग म्यां जरी पावावें| तरी उपास्ति ते कायसी ? ||१२७|| पैं रंकु एक आडलेपणें| काकुळती धांव गा धांव म्हणे| तरी तयाचिये ग्लानि धांवणें| काय न घडे मज ? ||१२८|| आणि भक्तांही तेचि दशा| तरी भक्तीचा सोसु कायसा| म्हणौनि हा ध्वनी ऐसा| न वाखाणावा ||१२९|| तिहीं जे वेळीं मी स्मरावा| ते वेळीं स्मरिला कीं पावावा| तो आभारुही जीवां| साहवेचि ना ||१३०|| तें ऋणवैपण देखोनि आंगीं| मी आपुलियाचि उत्तीर्णत्वालागीं| भक्तांचियां तनुत्यागीं| परिचर्या करीं ||१३१|| देहवैकल्याचा वारा| झणें लागेल या सुकुमारा| म्हणौनि आत्मबोधाचिया पांजिरां| सूयें तयातें ||१३२|| वरी आपुलिया स्मरणाची उवाइली| हींव ऐसी करीं साउली| ऐसेनि नित्य बुद्धि संचली| मी आणीं तयातें ||१३३|| म्हणौनि देहांतींचें सांकडें| माझिया कहींचि न पडे| मी आपुलियातें आपुलीकडे| सुखेंचि आणीं ||१३४|| वरचील देहाची गंवसणी फेडुनी| आहाच अहंकाराचे रज झाडुनी| शुद्ध वासना निवडुनी| आपणपां मेळवीं ||१३५|| आणि भक्तां तरी देहीं| विशेष एकवंकीचा ठावो नाहीं| म्हणौनि अव्हेरु करितां कांहीं| वियोगु ऐसा न वाटे ||१३६|| नातरी देहांतींचि मियां यावें| मग आपणपें यातें न्यावें| हेंही नाहीं स्वभावें| जे आधींचि मज मीनले ||१३७|| येरी शरीराचिया सलिलीं| असतेपण हेचि साउली| वांचूनि चंद्रिका ते ठेली| चंद्रींच आहे ||१३८|| ऐसे जे नित्ययुक्त| तयांसि सुलभ मी सतत| म्हणौनि देहांतीं निश्चित| मीचि होती ||१३९|| मग क्लेशतरूची वाडी| जे तापत्रयाग्नीची सगडी| जे मृत्युकाकासीं कुरोंडी| सांडिली आहे ||१४०|| जें दैन्याचें दुभतें| जें महाभयातें वाढवितें| जें सकळ दुःखाचें पुरतें| भांडवल ||१४१|| जें दुर्मतीचें मूळ| जें कुकर्माचें फळ| जें व्यामोहाचें केवळ| स्वरूपचि ||१४२|| जें संसाराचें बैसणें| जें विकारांचें उद्यानें| जें सकळ रोगांचें भाणें| वाढिलें आहे ||१४३|| जें काळाचा खिचु उशिटा| जें आशेचा आंगवठा| जन्ममरणाचा वोलिंवटा| स्वभावें जें ||१४४|| जें भुलीचें भरिव| जें विकल्पाचें वोतिंव| किंबहुना पेंव| विंचुवांचें ||१४५|| जें व्याघ्राचें क्षेत्र| जें पण्यांगनेचें मैत्र| जें विषयविज्ञानयंत्र| सुपूजित ||१४६|| जें लावेचा कळवळा| निवालिया विषोदकाचा गळाळा| जें विश्वासु आंगवळा| संवचोराचा ||१४७|| जें कोढियाचें खेंव| जें काळसर्पाचें मार्दव| गोरियेचें स्वभाव| गायन जें ||१४८|| जें वैरियाचा पाहुणेरु| जें दुर्जनाचा आदरु| हें असो जें सागरु| अनर्थांचा ||१४९|| जें स्वप्नीं देखिलें स्वप्न| जें मृगजळें सासिन्नलें वन| जें धूम्ररजांचें गगन| ओतलें आहे ||१५०|| ऐसें जें हें शरीर| तें ते न पवतीचि पुढती नर| जे होऊनि ठेले अपार| स्वरूप माझें ||१५१|| आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन | मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||१६|| एऱ्हवीं ब्रह्मपणाचिये भडसे| न चुकतीचि पुनरावृत्तीचे वळसे| परि निवटलियाचे जैसें| पोट न दुखे ||१५२|| नातरी चेइलियानंतरें| न बुडिजे स्वप्नींचेनि महापुरें| तेवीं मातें पावले ते संसारें| लिंपतीचि ना ||१५३|| एऱ्हवीं जगदाकाराचें सिरें| जें चिरस्थायीयांचे धुरे| ब्रह्मभुवन गा चवरें| लोकाचळाचें ||१५४|| जिये गांवींचा पहारु दिवोवरी| एका अमरेंद्राचें आयुष्य न धरी| विळोनि पांतीं उठी एकसरी| चवदाजणांची ||१५५|| सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः | रात्रि युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ||१७|| जैं चौकडिया सहस्र जाये| तैं ठाये ठावो विळुचि होये| आणि तैसेचि सहस्रवरिये पाहे| रात्री जेथ ||१५६|| येवढें अहोरात्र जेथिंचें| तेणें न लोटती जे भाग्याचे| देखती ते स्वर्गींचे| चिरंजीव ||१५७|| येरां सुरगणांची नवाई| विशेष सांगावी येथ काई| मुद्दल इंद्राचीचि दशा पाहीं| जे दिहाचे चौदा ||१५८|| परि ब्रह्मयाचियाहि आठां पाहारांतें| आपुलिया डोळां देखते| जे आहाति गा तयांतें| अहोरात्रविद म्हणिपे ||१५९|| अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे | रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ||१८|| भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते | रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ||१९|| तये ब्रह्मभुवनीं दिवसें पाहे| ते वेळीं गणना केहीं न समाये| ऐसें अव्यक्ताचें होये| व्यक्त विश्व ||१६०|| पुढती दिहाची चौपाहारी फिटे| आणि हा आकारसमुद्र आटे| पाठीं तैसाचि मग पाहांटे| भरों लागे ||१६१|| शारदीयेचिये प्रवेशीं| अभ्रें जिरती आकाशीं| मग ग्रीष्मांतीं जैशीं| निगती पुढती ||१६२|| तैशी ब्रह्मदिनाचिये आदी| हे भूतसृष्टीची मांदी| मिळे जंव सहस्रावधी| निमित्त पुरे ||१६३|| पाठीं रात्रींचा अवसरु होये| आणि विश्व अव्यक्तीं लया जाये| तोही युगसहस्र मोटका पाहे| आणि तैसेंचि रचे ||१६४|| हें सांगावया काय उपपत्ती| जे जगाचा प्रळयो आणि संभूती| इये ब्रह्मभुवनींचिया होती| अहोरात्रामाजीं ||१६५|| कैसें थोरिवेचें मान पाहें पां| जो सृष्टीबीजाचा साटोपा| परि पुनरावृत्तीचिया मापा| शीग जाहाला ||१६६|| एऱ्हवीं त्रैलोक्य हें धनुर्धरा| तिये गांवींचा गा पसारा| तो हा दिनोदयीं एकसरां| मांडतु असे ||१६७|| पाठीं रात्रींचा समो पावे| आणि अपैसाचि सांठवे| म्हणिये जेथिंचें तेथ स्वभावें| साम्यासी ये ||१६८|| जैसें वृक्षपण बीजासि आलें| कीं मेघ हें गगन जाहालें| तैसें अनेकत्व जेथ सामावलें| तें साम्य म्हणिपे ||१६९|| परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||२०|| तेथ समविषम न दिसे कांहीं| म्हणौनि भूतें हे भाष नाहीं| जेविं दूधचि जाहालिया दहीं| नामरूप जाय ||१७०|| तेविं आकारलोपासरिसें| जगाचें जगपण भ्रंशे| परि जेथें जाहालें तें जैसें| तैसेंचि असे ||१७१|| तैं तया नांव सहज अव्यक्त| आणि आकारावेळीं तेंचि व्यक्त| हें एकास्तव एक सूचित| एऱ्हवीं दोनी नाहीं ||१७२|| जैसें आटलिया रूपें| आटलेपण ते खोटी म्हणिपे| पुढती तो घनाकारु हारपे| जे वेळीं अलंकार होती ||१७३|| हीं दोहीं जैशीं होणीं| एकीं साक्षिभूत सुवर्णीं| तैसी व्यक्ताव्यक्ताची कडसणी| वस्तूच्या ठायीं ||१७४|| तें तरी व्यक्त ना अव्यक्त| नित्य ना नाशवंत| या दोहीं भावाअतीत| अनादिसिद्ध ||१७५|| जें हें विश्वचि होऊनि असे| परि विश्वपण नासिलेनि न नासे| अक्षरें पुसिल्या न पुसे| अर्थु जैसा ||१७६|| पाहें पां तरंग तरी होत जात| परि तेथ उदक तें अखंड असत| तेवीं भूताभावीं न नाशत| अविनाश जें ||१७७|| नातरी आटतिये अळंकारीं| नाटतें कनक असे जयापरी| तेवीं मरतिये जीवाकारीं| अमर जें आहे ||१७८|| अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् | यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||२१|| पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया | यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||२२|| जयातें अव्यक्त म्हणों ये कोडें| म्हणतां स्तुति हें ऐसें नावडे| जें मनाबुद्धी न सांपडे| म्हणौनियां ||१७९|| आणि आकारा आलिया जयाचें| निराकारपण न वचे| आकार लोपें न विसंचे| नित्यता गा ||१८०|| म्हणौनि अक्षर जें म्हणिजे| तेवींचि म्हणतां बोधुहि उपजे| जयापरौता पैसु न देखिजे| या नाम परमगती ||१८१|| परि आघवा इहीं देहपुरीं| आहे निजेलियाचे परी| जे व्यापारु करवी ना करी| म्हणौनियां ||१८२|| एऱ्हवीं जे शारीरचेष्टा| त्यांमाजीं एकही न ठके गा सुभटा| दाहीं इंद्रियांचिया वाटा| वाहतचि आहाती ||१८३|| उकलूनि विषयांचा पेटा| होत मनाचा चोहटा| तो सुखदुःखाचा राजवांटा| भीतराहि पावे ||१८४|| परि रावो पहुडलिया सुखें| जैसा देशींचा व्यापारु न ठके| प्रजा आपुलालेनि अभिलाखें| करितचि असती ||१८५|| तैसें बुद्धीचें हन जाणणें| कां मनाचें घेणें देणें| इंद्रियांचें करणें| स्फुरण वायूचें ||१८६|| हे देहक्रिया आघवी| न करवितां होय बरवी| जैसा न चलवितेनि रवी| लोकु चाले ||१८७|| अर्जुना तयापरी| सुतला ऐसा आहे शरीरीं| म्हणौनि पुरुषु गा अवधारीं| म्हणिपे जयातें ||१८८|| आणि प्रकृति पतिव्रते| पडिला एकपत्नीव्रतें| येणेंहि कारणें जयातें| पुरुषु म्हणों ये ||१८९|| पैं वेदाचें बहुवसपण| देखेचिना जयाचें आंगण| हें गगनाचें पांघरूण| होय देखा ||१९०|| ऐसें जाणूनि योगीश्वर| जयातें म्हणती परात्पर| जें अनन्यगतीचें घर| गिंवसीत ये ||१९१|| जे तनू वाचा चित्तें| नाइकती दुजिये गोष्टीतें| तयां एकनिष्ठेचें पिकतें| सुक्षेत्र जें ||१९२|| हें त्रैलोक्यचि पुरुषोत्तमु| ऐसा साच जयाचा मनोधर्मु| तया आस्तिकाचा आश्रमु| पांडवा गा ||१९३|| जें निगर्वाचें गौरव| जें निर्गुणाची जाणिव| जें सुखाची राणिव| निराशांसी ||१९४|| जें संतोषियां वाढिलें ताट| जें अचिंता अनाथांचें मायपोट| भक्तीसी उजू वाट| जया गांवा ||१९५|| हें एकैक सांगोनि वायां| काय फार करूं धनंजया| पैं गेलिया जया ठाया| तो ठावोचि होईजे ||१९६|| हिंवाचिया झुळुका| जैसें हिंवचि पडे उष्णोदका| कां समोर जालिया अर्का| तमचि प्रकाशु होय ||१९७|| तैसा संसारु जया गांवा| गेला सांता पांडवा| होऊनि ठाके आघवा| मोक्षाचाची ||१९८|| तरी अग्नीमाजीं आलें| जैसें इंधनचि अग्नि जहालें| पाठीं न निवडेचि कांहीं केलें| काष्ठपण ||१९९|| नातरी साखरेचा माघौता| बुद्धिमंतपणेंही करितां| परि ऊंस नव्हे पंडुसुता| जियापरी ||२००|| लोहाचें कनक जाहलें| हें एकें परिसेंचि केलें| आतां आणिक कैचें तें गेलें| लोहत्व आणी ||२०१|| म्हणौनि तूप होऊनि माघौतें| जेवीं दूधपणा न येचि निरुतें| तेवीं पावोनियां जयातें| पुनरावृत्ति नाहीं ||२०२|| तें माझें परम| साचोकारें निजधाम| हें आंतुवट तुज वर्म| दाविजत असे ||२०३|| यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्ति चैव योगिनः | प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ||२३|| तेवींचि आणिकेंही एके प्रकारें| हें जाणतां आहे सोपारें| तरी देह सांडितेनि अवसरें| जेथ मिळती योगी ||२०४|| अथवा अवचटें ऐसें घडे| जे अवसरें देह सांडे| तरि माघौतें येणें घडे| देहासीचि ||२०५|| म्हणौनि काळशुद्धी जरी देह ठेविती| तरी ठेवितखेंवी ब्रह्मचि होती| एऱ्हवीं अकाळीं तरी येती| संसारा पुढती ||२०६|| तैसे सायुज्य आणि पुनरावृत्ती| या दोन्ही अवसराआधीन आहाती| तोचि अवसरु तुजप्रती| प्रसंगें सांगों ||२०७|| तरि ऐकें गा सुभटा| पातलिया मरणाचा माजिवटा| पांचै आपुलालिया वाटा| निघती अंतीं ||२०८|| ऐसा वरिपडिला प्रयाणकाळीं| बुद्धीतें भ्रमु न गिळी| स्मृति नव्हे आंधळी| न मरे मन ||२०९|| हा चेतना वर्गु आघवा| मरणीं दिसे टवटवा| परि अनुभविलिया ब्रह्मभावा| गंवसणी होऊनि ||२१०|| ऐसा सावध हा समवावो| आणि निर्वाणवेऱ्हीं निर्वाहो| हें तरीच घडे जरी सावावो| अग्नीचा आथी ||२११|| पाहां पां वारेनें कां उदकें| जैं दिवियाचें दिवेपण झांके| तैं असतीच काय देखे| दिठी आपुली ? ||२१२|| तैसें देहांतींचेनि विषमवातें| देह आंत बाहेरी श्लेष्माआंते| तैं विझोनि जाय उजितें| अग्नीचें तें ||२१३|| ते वेळीं प्राणासि प्राणु नाहीं| तेथ बुद्धि असोनि करील काई| म्हणौनि अग्नीविण देहीं| चेतना न थारे ||२१४|| अगा देहींचा अग्नि जरी गेला| तरी देह नव्हे चिखलु वोला| वायां आयुष्यवेळु आपला| आंधारें गिंवसी ||२१५|| आणि मागील स्मरण आघवें| तें तेणें अवसरें सांभाळावें| मग देह त्यजूनि मिळावें| स्वरूपीं कीं ||२१६|| तंव तया श्लेष्माचे चिखलीं| चेतनाचि बुडोनि गेली| तेथ मागिली पुढिली हे ठेली| आठवण सहजें ||२१७|| म्हणौनि आधीं अभ्यासु जो केला| तो मरण न येतांचि निमोनि गेला| जैसें ठेवणें न दिसतां मालवला | दीपु हातींचा ||२१८|| आतां असो हें सकळ| जाण पां ज्ञानासि अग्नि मूळ| तया अग्नीचें प्रयाणीं बळ| संपूर्ण आथी ||२१९|| अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् | तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ||२४|| आंत अग्निज्योतीचा प्रकाशु| बाहेरी शुक्लपक्षु आणि दिवसु| आणि सामासांमाजीं मासु| उत्तरायण ||२२०|| ऐशिया समयोगाची निरुती| लाहोनि जे देह ठेविती| ते ब्रह्मचि होती| ब्रह्मविद ||२२१|| अवधारीं गा धनुर्धरा| येथवरी सामर्थ्य यया अवसरा| तेवींचि हा उजू मार्ग स्वपुरा| यावयां पैं ||२२२|| एथ अग्नी हें पहिलें पायतरें| ज्योतिर्मय हें दुसरें| दिवस जाणें तिसरें| चौथें शुक्लपक्ष ||२२३|| आणि सामास उत्तरायण| तें वरचील गा सोपान| येणें सायुज्यसिद्धिसदन| पावती योगी ||२२४|| हा उत्तम काळु जाणिजे| यातें अर्चिरा मार्गु म्हणिजे| आतां अकाळु तोही सहजें| सांगेन आईक ||२२५|| धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् | तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ||२५|| तरी प्रयाणाचिया अवसरें| वातश्लेष्मां सुभरें| तेणें अंतःकरणीं आंधारें| कोंदलें ठाके ||२२६|| सर्वेंद्रियां लांकुड पडे| स्मृति भ्रमामाजीं बुडे| मन होय वेडें| कोंडे प्राण ||२२७|| अग्नीचें अग्निपण जाये| मग तो धूमचि अवघा होये| तेणें चेतना गिंवसिली ठाये| शरीरींची ||२२८|| जैसें चंद्राआड आभाळ| सदट दाटे सजळ| मग गडद ना उजाळ| ऐसें झांवळें होय ||२२९|| कां मरे ना सावध| ऐसें जीवितासि पडे स्तब्ध| आयुष्य मरणाची मर्याद| वेळु ठाकी ||२३०|| ऐसी मनबुद्धिकरणीं| सभोंवतीं धूमाकुळाची कोंडणी| तेथ जन्में जोडलिये वाहणी| युगचि बुडे ||२३१|| हां गा हातींचें जे वेळीं जाये| ते वेळीं आणिका लाभाची गोठी कें आहे| म्हणौनि प्रयाणीं तंव होये| येतुली दशा ||२३२|| ऐशी देहाआंतु स्थिती| बाहेरि कृष्णपक्षु वरि राती| आणि सामासही वोडवती| दक्षिणायन ||२३३|| इये पुनरावृत्तीचीं घराणीं| आघवीं एकवटती जयाचिया प्रयाणीं| तो स्वरूपसिद्धीची काहाणी| कैसेंनि आइके ? ||२३४|| ऐसा जयाचा देह पडे| तया योगी म्हणौनि चंद्रवरी जाणें घडे| मग तेथूनि मागुता बहुडे| संसारा ये ||२३५|| आम्हीं अकाळु जो पांडवा| म्हणितला तो हा जाणावा| आणि हाचि धूम्रमार्गु गांवा| पुनरावृत्तीचिया ||२३६|| येर तो अर्चिरा मार्गु| तो वसता आणि असलगु| साविया स्वस्त चांगु| निवृत्तीवरी ||२३७|| शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते | एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ||२६|| ऐशिया अनादि या दोन्ही वाटा| एकी उजू एकी अव्हांटा| म्हणौनि बुद्धिपूर्वक सुभटा| दाविलिया तुज ||२३८|| कां जे मार्गामार्ग देखावे| साच लटिकें वोळखावें| हिताहित जाणावें| हिताचिलागीं ||२३९|| पाहें पां नाव देखतां बरवी| कोणी आड घाली काय अथावीं| कां सुपंथ जाणौनियां अडवीं| रिगवत असे ||२४०|| जो विष अमृत वोळखे| तो अमृत काय सांडूं शके ? | तेविं जो उजू वाट देखे| तो अव्हांटा न वचे ||२४१|| म्हणौनि फुडें| पारखावें खरें कुडें| पारखिलें तरी न पडे| अनवसरें कहीं ||२४२|| एऱ्हवीं देहांतीं थोर विषम| या मार्गाचें आहे संभ्रम| जन्मे अभ्यासिलियाचें हन काम| जाईल वायां ||२४३|| जरी अर्चिरा मार्गु चुकलिया| अवचटें धूम्रपंथें पडलिया| तरी संसारपांथीं जुंतलिया| भंवतचि असावें ||२४४|| हे सायास देखोनि मोठे| आतां कैसेनि पां एकवेळ फिटे| म्हणौनि योगमार्गु गोमटे| शोधिले दोन्ही ||२४५|| तंव एकें ब्रह्मत्वा जाइजे| आणि एकें पुनरावृत्ती येइजे| परि दैवगत्या जो लाहिजे| देहांतीं जेणें ||२४६|| नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन | तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ||२७|| ते वेळीं म्हणितलें हें नव्हे| वांया अवचटें काय पावे| देह त्यजूनि वस्तु होआवें| मार्गेंचि कीं ? ||२४७|| तरी आतां देह असो अथवा जावो| आम्ही तों केवळ वस्तूचि आहों| कां जे दोरीं सर्पत्व वावो| दोराचिकडुनी ||२४८|| मज तरंगपण असे कीं नसे| ऐसें हें उदकासी कहीं प्रतिभासे ? | तें भलतेव्हां जैसें तैसें| उदकचि कीं ||२४९|| तरंगाकारें न जन्मेचि| ना तरंगलोपें न निमेचि| तेविं देहीं जे देहेंचि| वस्तु जाहले ||२५०|| आतां शरीराचें तयाचिया ठाई| आडनांवही उरलें नाहीं| तरी कोणें काळें काई| निमे तें पाहें पां ||२५१|| मग मार्गातें कासया शोधावें ? | कोणें कोठूनि कें जावें ? | जरी देशकालादि आघवें| आपणचि असे ||२५२|| आणि हां गा घटु जे वेळीं फुटे| ते वेळीं तेथिंचें आकाश लागे नीट वाटे| वाटा लागे तरी गगना भेटे | एऱ्हवीं चुके ? ||२५३|| पाहें पां ऐसें हन आहे| कीं तो आकारुचि जाये| येर गगन तें गगनींचि आहे| घटत्वाहि आधीं ||२५४|| ऐसिया बोधाचेनि सुरवाडें| मार्गामार्गाचे सांकडें| तया सोऽहंसिद्धां न पडे| योगियांसी ||२५५|| याकारणें पंडुसुता| तुवां होआवें योगयुक्ता| येतुलेनि सर्वकाळीं साम्यता| आपैसया होईल ||२५६|| मग भलतेथ भलतेव्हां| देह असो अथवा जावा| परि अबंधा नित्य ब्रह्मभावा| विघडु नाहीं ||२५७|| तो कल्पादि जन्मा नागवे| कल्पांतीं मरणें नाप्लवें| माजीं स्वर्गसंसाराचेनि लाघवें| झकवेना ||२५८|| येणें बोधें जो योगी होये| तयासीचि या बोधाचें नीटपण आहे| कां जे भोगातें पेलूनि पायें| निजरूपा ये ||२५९|| पै गा इंद्रादिकां देवां| जयां सर्वस्वें गाजती राणिवा| तें सांडणें मानूनि पांडवा| डावली जो ||२६०|| वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टाम् | अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ||२८|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टामोऽध्यायः ||८अ || जरी वेदाध्ययनाचें जालें| अथवा यज्ञाचें शेतचि पिकलें| कीं तपोदानांचे जोडलें| सर्वस्व हन जें ||२६१|| तया आघवयाचि पुण्याचा मळा| भारु आंतौनि जया ये फळा| तें परब्रह्मा निर्मळा| सांटि न सरे ||२६२|| जें नित्यानंदाचेनि मानें| उपमेचा कांटाळा न दिसे सानें| पाहा पां वेदयज्ञादि साधनें| जया सुखा ||२६३|| जें विटे ना सरे| भोगी तयाचेनि पवाडें पुरे| पुढती महासुखाचें सोयरें| भावंडचि ||२६४|| ऐसें दृष्टीचेनि सुखपणें| जयासी अदृष्टाचें बैसणें| जें शतमखाही आंगवणें| नोहेचि एका ||२६५|| तयातें योगीश्वर अलौकिकें| दिठीचेनि हाततुकें| अनुमानती कौतुकें| तंव हळुवट आवडे ||२६६|| मग तया सुखाची किरीटी| करूनियां गा पाउटी| परब्रह्माचिये पाठीं| आरूढती ||२६७|| ऐसे चराचरैक भाग्य| जें ब्रह्मेशां आराधना योग्य| योगियांचें भोग्य| भोगधन जें ||२६८|| जो सकळ कळांची कळा| जो परमानंदाचा पुतळा| जो जिवाचा जिव्हाळा| विश्वाचिया ||२६९|| जो सर्वज्ञतेचा वोलावा| जो यादवकुळींचा कुळदिवा| तो श्रीकृष्णजी पांडवा- | प्रती बोलिला ||२७०|| ऐसा कुरुक्षेत्रींचा वृत्तांतु| संजयो रायासी असे सांगतु| तेचि परियेसा पुढारी मातु| ज्ञानदेव म्हणे ||२७१|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां अष्टमोध्यायः ||

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