ज्ञानेश्वरी अध्याय ५

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 16:07:12
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ५ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय पांचवा | संन्यासयोगः | संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि | यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ||१|| मग पार्थु श्रीकृष्णातें म्हणे| हां हो हें कैसें तुमचें बोलणें| एक होय तरी अंतःकरणें| विचारूं ये ||१|| मागां सकळ कर्मांचा सन्यासु| तुम्हींचि निरोपिला होता बहुवसु| तरी कर्मयोगीं केवीं अतिरसु| पोखीतसां पुढती ? ||२|| ऐसें द्व्यर्थ हें बोलतां| आम्हां नेणतयांच्या चित्ता| आपुलिये चाडें श्रीअनंता| उमजु नोहे ||३|| ऐकें एकसारातें बोधिजे| तरी एकनिष्ठचि बोलिजे| हें आणिकीं काय सांगिजे| तुम्हांप्रति ||४|| तरी याचिलागीं तुमतें| म्यां राउळासि विनविलें होतें| जें हा परमार्थु ध्वनितें| न बोलावा ||५|| परी मागील असो देवा| आतां प्रस्तुतीं उकलु देखावा| सांगैं दोहींमाजि बरवा| मार्गु कवणु ||६|| जो परिणामींचा निर्वाळा| अचुंबितु ये फळा| आणि अनुष्ठितां प्रांजळा| सावियाचि ||७|| जैसें निद्रेचें सुख न मोडे| आणि मार्गु तरी बहुसाल सांडे| तैसें सोहोकासन सांगडें| सोहपें होय ||८|| येणें अर्जुनाचेनि बोलें| देवो मनीं रिझले| मग होईल ऐकें म्हणितलें| संतोषोनियां ||९|| देखा कामधेनु ऐसी माये| सदैवा जया होये| तो चंद्रुही परी लाहे| खेळावया ||१०|| पाहे पां श्रीशंभूची प्रसन्नता| तया उपमन्यूचिया आर्ता| काय क्षीराब्धि दूधभाता| देइजेचिना ? ||११|| तैसा औदार्याचा कुरुठा| श्रीकृष्णु आपु जाहलिया सुभटा| कां सर्व सुखांचा वसौटा| तोचि नोहावा ? ||१२|| एथ चमत्कारु कायसा| गोसावी श्रीलक्ष्मीकांताऐसा| आतां आपुलिया सवेसा| मागावा कीं ||१३|| म्हणौनि अर्जुनें म्हणितलें| तें हांसोनि येरें दिधलें| तेंचि सांगेन बोलिलें| काय कृष्णें ||१४|| श्रीभगवानुवाच | संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ | तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ||२|| तो म्हणे गा कुंतीसुता| हे संन्यासयोगु विचारितां| मोक्षकरु तत्त्वता| दोनीही होती ||१५|| तरी जाणां नेणां सकळां| हा कर्मयोगु कीर प्रांजळा| जैसी नाव स्त्रियां बाळां| तोयतरणी ||१६|| तैसें सारासार पाहिजे| तरी सोहपा हाचि देखिजे| येणें संन्यासफळ लाहिजे| अनायासें ||१७|| आतां याचिलागीं सांगेन| तुज संन्यासियाचें चिन्ह| मग सहजें हें अभिन्न| जाणसी तूं ||१८|| ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति | निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ||३|| तरी गेलियाची से न करी| न पवतां चाड न धरी| जो सुनिश्चळु अंतरीं| मेरु जैसा ||१९|| आणि मी माझें ऐसी आठवण| विसरलें जयाचें अंतःकरण| पार्था तो संन्यासी जाण| निरंतर ||२०|| जो मनें ऐसा जाहला| संगीं तोचि सांडिला| म्हणौनि सुखें सुख पावला| अखंडित ||२१|| आतां गृहादिक आघवें| तें कांहीं नलगे त्यजावें| जें घेतें जाहलें स्वभावें| निःसंगु म्हणौनि ||२२|| देखैं अग्नि विझोनि जाये| मग जे राखोंडी केवळु होये| तैं ते कापुसें गिंवसूं ये| जियापरी ||२३|| तैसा असतेनि उपाधी| नाकळिजे तो कर्मबंधीं| जयाचिये बुद्धी| संकल्पु नाहीं ||२४|| म्हणौनि कल्पना जैं सांडे| तैंचि गा संन्यासु घडे| इयें कारणें दोनी सांगडे| संन्यासयोगु ||२५|| सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः | एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ||४|| एऱ्हवीं तरी पार्था| जे मूर्ख होती सर्वथा| ते सांख्ययोगुसंस्था| जाणती केवीं ? ||२६|| सहजें ते अज्ञान| म्हणौनि म्हणती ते भिन्न| एऱ्हवीं दीपाप्रति काई आनान| प्रकाशु आहाती ? ||२७|| पैं सम्यक् येणें अनुभवें| जिहीं देखिलें तत्त्व आघवें| तें दोहींतेंही ऐक्यभावें| मानिती गा ||२८|| यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते | एकं साख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्चति ||५|| आणि सांख्यीं जें पाविजे| तेंचि योगीं गमिजे| म्हणौनि ऐक्य दोहींतें सहजें| इयापरी ||२९|| देखैं आकाशा आणि अवकाशा| भेदु नाहीं जैसा| तैसें ऐक्य योगसंन्यासा| वोळखे जो ||३०|| तयासीचि जगीं पाहलें| आपणपें तेणेंचि देखिलें| जया सांख्ययोग जाणवले| भेदेंविण ||३१|| संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः | योगयुक्तो मुनिर्बह्म न चिरेणाधिगच्छति ||६|| जो युक्तिपंथें पार्था| चढे मोक्षपर्वता| तो महासुखाचा निमथा| वहिला पावे ||३२|| येरा योगस्थिति जया सांडे| तो वायांचि गा हव्यासीं पडे| परि प्राप्ति कहीं न घडे| संन्यासाची ||३३|| योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः | सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ||७|| जेणें भ्रांतीपासूनि हिरतलें| गुरुवाक्यें मन धुतलें| मग आत्मस्वरूपीं घातलें| हारौनियां ||३४|| जैसें समुद्रीं लवण न पडे| तंव वेगळें अल्प आवडे| मग होय सिंधूचि एवढें| मिळे तेव्हां ||३५|| तैसें संकल्पोनि काढिलें| जयाचें मनचि चैतन्य जाहलें| तेणें एकदेशियें परी व्यापिलें| लोकत्रय ||३६|| आतां कर्ता कर्म करावें| हें खुंटलें तया स्वभावें| आणि करी जऱ्ही आघवें| तऱ्ही अकर्ता तो ||३७|| नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन् ||८|| प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि | इंद्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ||९|| जे पार्था तया देहीं| मी ऐसा आठऊ नाहीं| तरी कर्तृत्व कैचैं काई| उरे सांगैं ? ||३८|| ऐसें तनुत्यागेंवीण| अमूर्ताचे गुण| दिसती संपूर्ण| योगयुक्तां ||३९|| एऱ्हवीं आणिकांचिये परी| तोही एक शरीरी| अशेषाही व्यापारीं| वर्ततु दिसे ||४०|| तोही नेत्रीं पाहे| श्रवणीं ऐकतु आहे| परि तेथींचा सर्वथा नोहे| नवल देखें ||४१|| स्पर्शासि तरी जाणे| परिमळु सेवी घ्राणें| अवसरोचित बोलणें| तयाहि आथी ||४२|| आहारातें स्वीकारी| त्यजावें तें परिहरी| निद्रेचिया अवसरीं| निदिजे सुखें ||४३|| आपुलेनि इच्छावशें| तोही गा चालतु दिसे| पैं सकळ कर्म ऐसें| रहाटे कीर ||४४|| हें सांगों काई एकैक| देखें श्वासोच्छ्वासादिक| आणि निमिषोन्निमिष| आदिकरूनि ||४५|| पार्था तयाचे ठायीं| हें आघवेंचि आथि पाहीं| परी तो कर्ता नव्हे कांहीं| प्रतीतिबळें ||४६|| जैं भ्रांति सेजे सुतला| तैं स्वप्नसुखें भुतला| मग तो ज्ञानोदयीं चेइला| म्हणौनियां ||४७|| ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः | लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||१०|| आतां अधिष्ठानसंगती| अशेषाही इंद्रियवृत्ती| आपुलालिया अर्थीं| वर्तत आहाती ||४८|| दीपाचेनि प्रकाशें| गृहींचे व्यापार जैसे| देहीं कर्मजात तैसे| योगयुक्ता ||४९|| तो कर्में करी सकळें| परी कर्मबंधा नाकळे| जैसें न सिंपे जळीं जळें| पद्मपत्र ||५०|| कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि | योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ||११|| देखैं बुद्धीची भाष नेणिजे| मनाचा अंकुर नुदैजे| ऐसा व्यापारु तो बोलिजे| शारीरु गा ||५१|| हेंच मराठे परियेशीं| तरी बाळकाची चेष्टा जैशी| योगिये कर्में करिती तैशीं| केवळा तनु ||५२|| मग पांचभौतिक संचलें| जेव्हां शरीर असे निदेलें| तेथ मनचि रहाटें एकलें| स्वप्नीं जेवीं ||५३|| नवल ऐकें धनुर्धरा| कैसा वासनेचा संसारा| देहा होऊं नेदी उजगरा| परी सुखदुःखें भोगी ||५४|| इंद्रियांच्या गांवीं नेणिजे| ऐसा व्यापारु जो निपजे| तो केवळु गा म्हणिजे| मानसाचा ||५५|| योगिये तोही करिती| परी कर्में तें न बंधिजती| जे सांडिली आहे संगती| अहंभावाची ||५६|| आतां जाहालिया भ्रमहत| जैसें पिशाचाचें चित्त| मग इंद्रियांचें चेष्टित| विकळु दिसे ||५७|| स्वरूप तरी देखे| आळविलें आइके| शब्दु बोले मुखें| परी ज्ञान नाहीं ||५८|| हें असो काजेंविण| जें जें कांहीं करण| तें केवळ कर्म जाण| इंद्रियांचें ||५९|| मग सर्वत्र जें जाणतें| ते बुद्धीचें कर्म निरुतें| ओळख अर्जुनातें| म्हणे हरी ||६०|| ते बुद्धी धुरे करुनी| कर्म करिती चित्त देऊनी| परी ते नैष्कर्म्यापासुनी| मुक्त दिसती ||६१|| जें बुद्धीचिये ठावूनि देही| तयां अहंकाराची सेचि नाहीं| म्हणौनि कर्म करितां पाहीं| चोखाळले ||६२|| अगा करितेनवीण कर्म| तेंचि तें नैष्कर्म्य| हें जाणती सुवर्म| गुरुगम्य जें ||६३|| आतां शांतरसाचें भरितें| सांडीत आहे पात्रातें| जें बोलणें बोलापरौतें| बोलवलें ||६४|| एथ इंद्रियांचा पांगु| जया फिटला आहे चांगु| तयासीचि आथि लागु| परिसावया ||६५|| हा असो अतिप्रसंगु| न संडी पां कथालागु| होईल श्लोकसंगति भंगु| म्हणौनियां ||६६|| जें मना आकळितां कुवाडें| घाघुसितां बुद्धी नातुडे| तें दैवाचेनि सुरवाडें| सांगवलें तुज ||६७|| जें शब्दातीत स्वभावें| तें बोलींचि जरी फावे| तरी आणिकें काय करावें| कथा सांगैं ||६८|| हा आर्तिविशेषु श्रोतयांचा| जाणोनि दास निवृत्तीचा| म्हणे संवादु दोघांचा| परिसोनि परिसा ||६९|| मग श्रीकृष्ण म्हणे पार्थातें| आतां प्राप्ताचें चिन्ह पुरतें| सांगेन तुज निरुतें| चित्त देईं ||७०|| युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् | अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||१२|| तरी आत्मयोगें आथिला| जो कर्मफळाशीं विटला| तो घर रिघोनि वरिला| शांति जगीं ||७१|| येरु कर्मबंधें किरीटी| अभिलाषाचिया गांठीं| कळासला खुंटी| फळभोगाच्या ||७२|| सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||१३|| जैसा फळाचिये हांवें| तैसें कर्म करी आघवें| मग न कीजेचि येणें भावें| उपेक्षी जो ||७३|| तो जयाकडे वासु पाहे| तेउती सुखाची सृष्टि होये| तो म्हणे तेथ राहे| महाबोधु ||७४|| नवद्वारें देहीं| तो असतुचि परि नाहीं| करितुचि न करी कांहीं| फलत्यागी ||७५|| न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः | न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ||१४|| जैसा कां सर्वेश्वरू| पाहिजे तंव निर्व्यापारु| परि तोचि रची विस्तारु| त्रिभुवनाचा ||७६|| आणि कर्ता ऐसें म्हणिपे| तरी कवणें कर्मीं न शिंपें| जे हातुपावो न लिंपे| उदासवृत्तीचा ||७७|| योगनिद्रा तरी न मोडे| अकर्तेपणा सळु न पडे| परी महाभूतांचें दळवाडें| उभारी भले ||७८|| जगाच्या जीवीं आहे| परी कवणाचा कहीं नोहे| जगचि हें होय जाये| तो शुद्धीहि नेणे ||७९|| नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः | अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||१५|| पापपुण्यें अशेषें| पासींचि असतु न देखें| आणि साक्षीही होऊं न ठके| येरी गोठी कायसी ? ||८०|| पैं मूर्तीचेनि मेळें| तो मूर्तचि होऊनि खेळे| परि अमूर्तपण न मैळे| दादुलयाचें ||८१|| तो सृजी पाळी संहारी| ऐसें बोलती जे चराचरीं| तें अज्ञान गा अवधारीं| पंडुकुमरा ||८२|| ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः | तेषामादित्यवज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ||१६|| तें अज्ञान जैं समूळ तुटे| तै भ्रांतीचें मसैरें फिटे| मग अकर्तृत्व प्रगटे| मज ईश्वराचें ||८३|| एथ ईश्वरु एकु अकर्ता| ऐसें मानलें जरी चित्ता| तरी तोचि मी हें स्वभावता| आदीचि आहे ||८४|| ऐसेनि विवेकें उदो चित्तीं| तयासी भेदु कैंचा त्रिजगतीं| देखें आपुलिया प्रतीति| जगचि मुक्त ||८५|| जैशी पूर्वदिशेच्या राउळीं| उदया येतांचि सूर्य दिवाळी| कीं येरीही दिशां तियेचि काळीं| काळिमा नाहीं ||८६|| तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठातत्परायणः | गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ||१७|| बुद्धिनिश्चयें आत्मज्ञान| ब्रह्मरूप भावी आपणा आपण| ब्रह्मनिष्ठा राखे पूर्ण| तत्परायण अहर्निशीं ||८७|| ऐसें व्यापक ज्ञान भलें| जयांचिया हृदया गिंवसित आलें| तयांची समता दृष्टि बोलें| विशेषूं काई ||८८|| एक आपणपांचि जैसें| ते देखतीं विश्व तैसें| हें बोलणें कायसें| नवलु एथ ||८९|| परी दैव जैसें कवतिकें| कहींचि दैन्य न देखे| कां विवेकु हा नोळखे| भ्रांतीतें जेवीं ||९०|| नातरी अंधकाराची वानी| जैसा सूर्यो न देखे स्वप्नीं| अमृत नायके कानीं| मृत्युकथा ||९१|| हें असो संतापु कैसा| चंद्रु न स्मरे जैसा| भूतीं भेदु नेणती तैसा| ज्ञानिये ते ||९२|| विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि | शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ||१८|| मग हा मशकु हा गजु| कीं हा श्वपचु हा द्विजु| पैल इतरु हा आत्मजु| हें उरेल कें ? ||९३|| ना तरी हे धेनु हें श्वान| एक गुरु एक हीन| हें असो कैचें स्वप्न| जागतया ||९४|| एथ भेदु तरी कीं देखावा| जरी अहंभाव उरला होआवा| तो आधींचि नाहीं आघवा| आतां विषमु काई ||९५|| इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः | निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ||१९|| म्हणौनि सर्वत्र सदा सम| तें आपणचि अद्वय ब्रह्म| हें संपूर्ण जाणें वर्म| समदृष्टीचें ||९६|| जिहीं विषयसंगु न सांडितां| इंद्रियांतें न दंडितां| परी भोगिली निसंगता| कामनेविण ||९७|| जिहीं लोकांचेनि आधारें| लौकिकेंचि व्यापारें| परि सांडिलें निदसुरें| लौकिकु हें ||९८|| जैसा जनामाजि खेचरु| असतुचि जना नोहे गोचरु| तैसा शरीरीं परी संसारु| नोळखे तयांतें ||९९|| हें असो पवनाचेनि मेळें| जैसें जळींचि जळ लोळे| तें आणिकें म्हणती वेगळें| कल्लोळ हे ||१००|| तैसें नाम रूप तयाचें| एऱ्हवीं ब्रह्मचि तो साचें| मन साम्या आलें जयाचें| सर्वत्र गा ||१०१|| ऐसेनि समदृष्टी जो होये| तया पुरुषा लक्षणही आहे| अर्जुना संक्षेपें सांगेन पाहें| अच्युत म्हणे ||१०२|| न प्रहृष्योत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् | स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ||२०|| तरी मृगजळाचेनि पूरें| जैसें न लोटिजे कां गिरिवरें| तैसा शुभाशुभीं न विकरे| पातलिया जो ||१०३|| तोचि तो निरुता| समदृष्टी तत्त्वतां| हरि म्हणे पंडुसुता| तोचि ब्रह्म ||१०४|| बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् | स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ||२१|| जया आपणपें सांडूनि कहीं| इंद्रियग्रामावरी येणेंचि नाहीं| तो विषय न सेवी हें काई| विचित्र येथ ||१०५|| सहजें स्वसुखाचेनि अपारें| सुरवाडलेनि अंतरें| रचिला म्हणौनि बाहिरें| पाउल न घाली ||१०६|| सांगैं कुमुददळाचेनि ताटें| जो जेविला चंद्रकिरणें चोखटें| तो चकोरु काई वाळुवंटें| चुंबितु असे ? ||१०७|| तैसें आत्मसुख उपाइलें| जयासि आपणपेंचि फावलें| तया विषयो सहजें सांडवले| म्हणो काई ? ||१०८|| एऱ्हवीं तरी कौतुकें| विचारूनि पाहें पां निकें| या विषयांचेनि सुखें| झकविती कवण ||१०९|| ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते | आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ||२२|| जिहीं आपणपें नाहीं देखिलें| तेचि इहीं इंद्रियार्थीं रंजले| जैसें रंकु कां आळुकैलें| तुषांतें सेवी ||११०|| नातरी मृगें तृषापीडितें| संभ्रमें विसरोनि जळांतें| मग तोयबुद्धी बरडीतें| ठाकूनि येती ||१११|| तैसें आपणपें नाहीं दिठे| जयातें स्वसुखाचे सदा खरांटे| तयासीचि विषय हे गोमटे| आवडती ||११२|| एऱ्हवीं विषयीं सुख आहे| हे बोलणेंचि सारिखें नोहे| तरी विद्युत्स्फुरणें कां न पाहे| जगामाजीं ||११३|| सांगैं वात वर्ष आतपु धरे| ऐसे अभ्रच्छायाचि जरी सरे| तरी त्रिमाळिकें धवळारें| करावीं कां ||११४|| म्हणौनि विषयसुख जें बोलिजे| तें नेणतां गा वायां जल्पिजे| जैसें महूर कां म्हणिजे| विषकंदातें ||११५|| नातरी भौमा नाम मंगळु| रोहिणीतें म्हणती जळु| तैसा सुखप्रवादु बरळु| विषयिकु हा ||११६|| हे असो आघवी बोली| सांग पां सर्पफणीचा साउली| ते शीतल होईल केतुली| मूषकासी ? ||११७|| जैसा आमिषकवळु पांडवा| मीनु न सेवी तंवचि बरवा| तैसा विषयसंगु आघवा| निभ्रांत जाणें ||११८|| हे विरक्तांचिये दिठी| जैं न्याहाळिजे किरीटी| तैं पांडुरोगाचिये पुष्टी- | सारिखें दिसे ||११९|| म्हणौनि विषयभोगीं जें सुख| तें साद्यंतचि जाण दुःख| परि काय कीजे मूर्ख| न सेवितां न सरे ||१२०|| तें अंतर नेणती बापुडे| म्हणौनि अगत्य सेवणें घडे| सांगैं पूयपंकींचे किडे| काय चिळसी घेती ||१२१|| तयां दुःखियां दुःखचि जिव्हार| ते विषयकर्दमींचे दर्दुर| ते भोगजळींचे जळचर| सांडिती केवीं ||१२२|| आणि दुःखयोनि जिया आहाती| तिया निरर्थका तरी नव्हती| जरी विषयांवरी विरक्ती| धरिती जीव ||१२३|| नातरी गर्भवासादि संकट| कां जन्ममरणींचे कष्ट| हे विसांवेवीण वाट| वाहावी कवणें ||१२४|| जरी विषयीं विषयो सांडिजेल| तरी महादोषीं कें वसिजेल| आणि संसारु हा शब्दु नव्हेल| लटिका जगीं ? ||१२५|| म्हणौनि अविद्याजात नाथिलें| तें तिहींचि साच दाविलें| जिहीं सुखबुद्धी घेतलें| विषयदुःख ||१२६|| या कारणें गा सुभटा| हा विचारितां विषय वोखटा| तूं झणें कहीं या वाटा| विसरोनि जाशी ||१२७|| पैं यातें विरक्त पुरुष| त्यजिती कां जैसें विष| निराशा तयां दुःख| दाविलें नावडे ||१२८|| शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्षरीरविमोक्षणात् | कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ||२३|| ज्ञानियांच्या हन ठायीं| याची मातुही कीर नाहीं| देहीं देहभावो जिहीं| स्ववश केले ||१२९|| जयांतें बाह्याची भाष| नेणिजेचि निःशेष| अंतरीं सुख| एक आथि ||१३०|| परि तें वेगळेपणें भोगिजे| जैसें पक्षियें फळ चुंबिजे| तैसें नव्हे तेथ विसरिजे| भोगितेपणही ||१३१|| भोगीं अवस्था एकी उठी| ते अहंकाराचा अंचळु लोटी| मग सुखेंसि घे आंटी| गाढेपणें ||१३२|| तिये आलिंगनमेळीं| होय आपेंआप कवळी| तेथ जळ जैसें जळीं| वेगळें न दिसे ||१३३|| कां आकाशीं वायु हारपे| तेथ दोन्ही हे भाष लोपे| तैसे सुखचि उरे स्वरूपें| सुरतीं तिये ||१३४|| ऐसी द्वैताची भाष जाय| मग म्हणों जरी एक होय| तरी तेथ साक्षी कवणु आहे| जाणते जें ||१३५|| योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः | स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ||२४|| लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः | छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ||२५|| म्हणौनि असो हें आघवें| एथ न बोलणें काय बोलावें| ते खुणाचि पावले स्वभावें| आत्माराम ||१३६|| जे ऐसेनि सुखें मातले| आपणपांचि आपण गुंतले| ते मी जाणें निखिळ वोतले| सामरस्याचे ||१३७|| ते आनंदाचे अनुकार| सुखाचे अंकुर| कीं महाबोधें विहार| केले जैसे ||१३८|| ते विवेकाचें गांव| कीं परब्रम्हींचे स्वभाव| नातरी अळंकारले अवयव| ब्रह्मविद्येचे ||१३९|| ते सत्त्वाचे सात्त्विक| कीं चैतन्याचे आंगिक| हें बहु असो एकैक| वानिसी काई ||१४०|| तूं संतस्तवनीं रतसी| तरी कथेची से न करिसी| कीं निराळीं बोल देखसी| सनागर ||१४१|| परि तो रसातिशयो मुकुळीं| मग ग्रंथार्थदीपु उजळीं| करी साधुहृदयराउळीं| मंगळउखा ||१४२|| ऐसा श्रीगुरूचा उवायिला| निवृत्तिदासासी पातला| मग तो म्हणे श्रीकृष्ण बोलिला| तेंचि आइका ||१४३|| अर्जुना अनंत सुखाच्या डोहीं| एकसरा तळुचि घेतला जिहीं| मग स्थिराऊनि तेही| तेंचि जाहले ||१४४|| अथवा आत्मप्रकाशें चोखें| जो आपणपेंचि विश्व देखे| तो देहेंचि परब्रह्म सुखें| मानूं येईल ||१४५|| जें साचोकारें परम| ना तें अक्षर निःसीम| जिये गांवींचे निष्काम| अधिकारिये ||१४६|| जे महर्षीं वाढले| विरक्तां भागा फिटलें| जे निःसंशया पिकलें| निरंतर ||१४७|| कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् | अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ||२६|| जिहीं विषयांपासोनि हिरतलें| चित्त आपुलें आपण जिंतिलें| ते निश्चित जेथ सुतले| चेतीचिना ||१४८ || तें परब्रह्म निर्वाण| जें आत्मविदांचें कारण| तेंचि ते पुरुष जाण| पंडुकुमरा ||१४९ || ते ऐसे कैसेंनि जहाले| जे देहींचि ब्रह्मत्वा आले| हें पुससी तरी भलें| संक्षेपें सांगों ||१५० || स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः | प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ||२७|| यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः | विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ||२८|| तरी वैराग्याचेनि आधारें| जिहीं विषय दवडूनि बाहिरें| शरीरीं एकंदरें| केलें मन ||१५१|| सहजें तिहीं संधी भेटी| जेथ भ्रूपल्लवां पडे गांठी| तेथ पाठिमोरी दिठी| पारखोनियां ||१५२|| सांडूनि दक्षिण वाम| प्राणापानसम| चित्तेंसीं व्योम- | गामिये करिती ||१५३|| तेथ जैसीं रथ्योदकें सकळें| घेऊनि गंगा समुद्रीं मिळे| मग एकेकु वेगळें| निवडूं नये ||१५४|| तैसी वासनांतराची विवंचना| मग आपैसी पारुखे अर्जुना| जे वेळीं गगनीं लयो मना| पवनें कीजे ||१५५|| जेथ हें संसारचित्र उमटे| तो मनोरूपु पटु फाटे| जैसें सरोवर आटे| मग प्रतिभा नाहीं ||१५६|| तैसें मन एथ मुद्दल जाय| मग अहंभावादिक कें आहे| म्हणौनि शरीरेंचि ब्रह्म होये| अनुभवी तो ||१५७|| भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||२९|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंज्ञासयोगोनाम पंचमोऽध्यायः ||५अ || आम्हीं मागां हन सांगितलें| जे देहींचि ब्रह्मत्व पावले| ते येणें मार्गें आले| म्हणौनियां ||१५८|| आणि यमनियमांचे डोंगर| अभ्यासाचे सागर| क्रमोनि हे पार| पातले ते ||१५९|| तिहीं आपणपें करूनि निर्लेप| प्रपंचाचें घेतलें माप| मग साचाचेंचि रूप| होऊनि ठेले ||१६०|| ऐसा योगयुक्तीचा उद्देशु| जेथ बोलिला हृषीकेशु| तेथ अर्जुनु सुदंशु| म्हणौनि चमत्कारला ||१६१|| तें देखिलिया कृष्णें जाणितलें| मग हांसोनि पार्थातें म्हणितलें| काई पां चित्त उवाइलें| इये बोलीं तुझें ? ||१६२|| तंव अर्जुन म्हणे देवो| परचित्तलक्षणांचा रावो| भला जाणितला जी भावो| मानसु माझा ||१६३|| म्यां जें कांहीं विवरोनि पुसावें| तें आधींचि जाणितलें देवें| तरी बोलिलें तेंचि सांगावें| विवळ करूनि ||१६४|| एऱ्हवीं तरी अवधारा| जो दाविला तुम्हीं अनुसारा| तो पव्हण्याहूनि पायउतारा| सोहपा जैसा ||१६५|| तैसा सांख्याहूनि प्रांजळा| परी आम्हांसारिखियां अभोळां| एथ आहाति परि कांहीं काळा| तो साहों ये वर ||१६६|| म्हणौनि एक वेळ देवा| तोचि पडताळा घेयावा| विस्तरेल तरी सांगावा| साद्यंतुचि ||१६७|| तंव श्रीकृष्ण म्हणती हो कां| तुज हा मार्गु गमला निका| तरी काय जाहलें आईकीजो कां| सुखें बोलों ||१६८|| अर्जुना तूं परिससी| परिसोनि अनुष्ठिसी| तरी आम्हांसीचि वानी कायसी| सांगावयाची ? ||१६९|| आधींचि चित्त मायेचें| वरी मिष जाहले पढियंतयाचें| आतां तें अद्भुतपण स्नेहाचें| कवण जाणे ||१७०|| तें म्हणो कारुण्यरसाची वृष्टि| कीं नवया स्नेहाची सृष्टि| हें असो नेणिजे दृष्टी| हरीची वानूं ||१७१|| जे अमृताची वोतली| कीं प्रेमचि पिऊनि मातली| म्हणौनि अर्जुनमोहें गुंतली| निघों नेणें ||१७२|| हें बहु जें जें जल्पिजेल| तेथें कथेसि फांकु होईल| परि तें स्नेहरूपा न येल| बोलवरी ||१७३|| म्हणौनि विसुरा काय येणें| तो ईश्वरु कवळावा कवणें| जो आपुलें मान नेणें| आपणचि ||१७४|| तरी मागीला ध्वनीआंतु| मज गमला सावियाचि मोहितु| जे बलात्कारें असे म्हणतु| परिस बापा ||१७५|| अर्जुना जेणें जेणें भेदें| तुझें कां चित्त बोधे| तैसें तैसें विनोदें| निरूपिजेल ||१७६|| तो काइसया नाम योगु| तयाचा कवण उपेगु| अथवा अधिकारप्रसंगु| कवणा येथ ||१७७|| ऐसें जें जें कांहीं| उक्त असे इये ठाईं| तें आघवेंचि पाहीं| सांगेन आतां ||१७८|| तूं चित्त देऊनि अवधारीं| ऐसें म्हणौनि श्रीहरी| बोलिजेल ते पुढारी| कथा आहे ||१७९|| श्रीकृष्ण अर्जुनासी संगु| न सांडोनि सांगेल योगु| तो व्यक्त करूं प्रसंगु| म्हणे निवृत्तिदासु ||१८०|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां पंचमोऽध्यायः ||

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